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विश्वपुरुष-दर्शन१
दोहरा रूप
जब कि इस दर्शन के विकराल रूप का प्रभाव अभी उसपर छाया हुआ था तब भी भगवान् का कथन समाप्त होने के बाद अर्जुन ने जो प्रथम उद्गार प्रकट किये वे मृत्यु की इस मुखाकृति तथा इस संहार के पीछे विद्यमान एक महत्तर उद्धारक तथा आश्वासक सद्वस्तु की एक ओजस्वी व्याख्या करते हैं । वह कहता है, ''हे हृषीकेश, संसार आपके नाम से जो हर्षित होता है और उसमें आनंद लेता है वह समुचित तथा उपयुक्त ही है । राक्षस आपसे त्रस्त होकर दिशा-विदिशाओ में भाग रहे हैं और सिद्धसंघ भक्तिपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं । हे महात्मन्, वे आपकी क्यों न पूजा करें ? क्योंकि, आप तो आदि स्रष्टा तथा कर्मों के आदि कर्त्ता हैं और जगदुत्पादक ब्रह्मा से भी अधिक महान् हैं । हे अनंत, हे देवेश, हे जगन्निवास, आप अक्षर हैं, सत् तथा असत् जो कुछ भी है वह आप ही हैं और जो परतम हैं वह भी आप हैं । आप पुराण पुरुष, आदि तथा मूल देव हैं और इस विश्व के परम विश्राम-स्थल हैं; आप ही ज्ञाता और ज्ञेय हैं, परमधाम हैं; हे अनंतरूप, यह विश्व आपने ही विस्तारित किया है । आप यम, वायु, अग्नि, सोम, वरुण, प्रजापति, प्राणिमात्न के पिता हैं और आप ही प्रपितामह भी हैं । आपको सहस्र वार नमस्कार हो, पुन: नमस्कार, पुन: पुन: नमस्कार, आगे और पीछे से तथा सब ओर से नमस्कार हो, क्योंकि आप ही प्रत्येक वस्तु हैं तथा जो कुछ भी है वह सब आप ही हैं । अनंत वीर्य और अमित कर्मशक्तिवाले आप 'सब' के अन्दर व्याप्त हैं और आप ही 'सब' हैं ।२
परंतु ये परमोच्च विश्व-पुरुष यहाँ उसके सामने मानव आकार में, मर्त्य शरीर में, भागवत मनुष्य, देहधारी भगवान् एवं अवतार के रूपमें निवास करते आये हैं और अबतक वह उन्हें नहीं जान पाया है । उसने केवल उनकी मानवता ____________ १. गीता, ११. ३५-५५ २. ११, ३६-४ ० ३९२ विग्रह को भी देखना चाहता है । वह उनके गुणों का श्रवण कर चुका है तथा उनके आत्म-प्रकटीकरण के सोपानों तथा तरीकों को समझ चुका है; परन्तु अब वह इन योगेश्वर से कहता है कि मेरे योग-चक्षु के सम्मुख अपनी उस वास्तविक अव्यय आत्मा को प्रकाशित कीजिये । स्पष्ट ही उसका अभिप्राय उनके निष्कर्म अक्षरभाव की निराकार नीरवता से नहीं है, बल्कि उन पुरुषोत्तम से है जिनसे समस्त शक्ति एवं कर्म उद्भूत होता है, सभी रूप जिनके आवरण हैं, जो विभूति में अपनी शक्ति प्रकाशित करते हैं, जो कर्मों के स्वामी, ज्ञान और भक्ति के स्वामी, प्रकृति और उसके समस्त प्राणियों के परमेश्वर हैं । इस महान् से महान् सर्वग्राही दिव्यदर्शन के प्रीत्यर्थ प्रार्थना करने के लिए उसे प्रेरित किया गया है क्योंकि इस प्रकार ही उसे, जगत्कर्म में अपना भाग ग्रहण करने के लिए विश्व में अभिव्यक्त परमात्मा से आदेश प्राप्त करना होगा ।
अवतार उत्तर देते हैं कि जो कुछ तुझे देखना है उसे मानवीय चक्षु नहीं ग्रहण कर सकता,--क्योंकि मानवीय चक्षु वस्तुओं के केवल बाह्य रूप ही देख सकता है अथवा उनके द्वारा कुछ पृथक् प्रतीकात्मक रूप निर्मित कर सकता है, जिन रूपों में से हरएक शाश्वत रहस्य के कुछ-एक पक्षों का ही सूचक होता है । परन्तु एक दिव्य चक्षु, अंतरतम दृष्टि भी है जिसके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान् को उनके अपने ऐश्वर योग में देखा जा सकता है और वह चक्षु अब मैं तुझे देता हूँ । वे कहते हैं कि तू मेरे नाना प्रकार के, नाना वर्णों और आकारोंवाले सैकड़ों और सहस्रों दिव्य रूप देखेगा; तू आदित्यों, रुद्रों, मरुतों और 'अश्विनौ' को देखेगा; तू ऐसे बहुत-से आश्चर्य देखेगा जिन्हें किसी ने नही देखा है; तू आज सम्पूर्ण जगत् को मेरी देह के अन्दर परस्पर-सम्बद्ध तथा एकत्र स्थित देखेगा तथा और जो कुछ भी तू देखना चाहता है वह सब भी देखेगा । इस प्रकार इस विश्वरूपदर्शन का मूल स्वर तथा प्रधान मर्म यही है । यह बहु में एक तथा एक में बहु का दर्शन है,--सब वस्तुएँ वह 'एक' ही हैं । यही दर्शन उस सबको जो है और था और होगा, दिव्य योग के चक्षु के सामने उन्मुक्त कर देता है और उसका समर्थन तथा व्याख्या करता है । एक बार इसके प्राप्त हो जाने तथा इसे धारण कर लेने पर यह भागवत ज्योति के खड्ग से सब संशयों तथा व्यामोहों की जड़ काट डालता है और सब निषेधों तथा विरोधों का उन्मूलन कर देता है । यही वह दर्शन है जो वस्तुओं में समन्वय और एकत्व स्थापित करता है । यदि जीव इस दर्शन में परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्त कर सके,--अर्जुन अभी तक इसे नहीं प्राप्त कर सका है, इसलिए हम देखते हैं कि दर्शन करने पर वह भयभीत होता है-तो, इस संसार में जो कुछ भी भीषण है वह सब भी उसके लिए त्नासकारी नहीं रह ३९३ जायगा । तब हम देखेंगे कि वह भी परमेश्वर का ही एक रूप है और एक बार जब हम, उसे केवल अपने-आपमें ही न देखते हुए, उसके अन्दर उनके प्रयोजन को ढूँढ लेंगे, तब हम सम्पूर्ण जगत् को सर्वालिंगी हर्ष तथा प्रबल उत्साह के साथ अंगी-कार कर सकेंगे, अपने नियत कर्म की ओर सुनिश्चित पगों से अग्रसर हो सकेंगे और उससे परे परमोच्च परिणति को अपनी दृष्टि में ला सकेंगे । जिस जीव को उस दिव्य ज्ञान में प्रवेश प्राप्त हुआ है जो सभी वस्तुओं को विभक्त, खंडित और अतएव व्यामूढ दृष्टि से नहीं बल्कि एक ही अखंड दृष्टि से देखता है, वह जीव जगत् के तथा और जो कुछ भी वह देखना चाहता है, 'यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि' उस सबके बारे में नयी खोज कर सकता है; सबको संबद्ध तथा एकीभूत करनेवाले इस दर्शन के आधार पर वह एक सत्यदृष्टि से अधिकाधिक पूर्ण सत्यदृष्टि की ओर बढ़ सकता है ।
वह परम ' रूप' तब उसे दिखाया जाता है । वह उन अनंत परमेश्वर का रूप है जो विश्वतोमुख तथा सर्वाश्चर्यमय हैं, जो अपनी सत्ता के अनेक अद्भुत दर्शनों को अनंत रूप से बहुगुणित करते हैं, जो असंख्य नेत्नों तथा असंख्य वक्त्रोंवाले, अगणित दिव्य आयुधों से युद्ध के लिए सुसज्जित, सुन्दर दिव्य आभरणों से शोभाय-मान, दिव्यांबरधारी, दिव्यपुष्पों की मालाओं से सुशोभित, दिव्यगंधों के अनुलेपन से सुवासित विश्वव्यापी देव हैं । ईश्वर के इस विग्रह की प्रभा ऐसी है मानों सहस्रों सूर्य आकाश में एक साथ उदित हो उठे हों । बहुधा विभक्त और फिर भी एकीभूत सारे का सारा जगत् उस देवदेव की देह में दृष्टिगोचर हो रहा है । अर्जुन उन देवाधिदेव के, उन ऐश्वर्यमय, शोभन तथा भीषण परमे-श्वर के, जीवों के प्रभु उन परमात्मा के दर्शन करता है जिन्होंने अपनी आत्मसत्ता की गरिमा-महिमा के अन्दर इस उग्र एवं भयावह और व्यवस्थित, अद्भुत एवं मधुर तथा भीषण जगत् को व्यक्त किया है, और हर्ष, भय तथा विस्मय से आविष्ट होकर वह उस विकराल विश्वरूप के आगे शीश नवाता है तथा हाथ जोड़कर संभ्रमपूर्ण वचनों के साथ उसकी पूजा करता है । वह कहता है, ''हे देव, आपकी देह में मैं सब देवों, विभिन्न भूतसंघों, कमलासनस्थ स्रष्टा देव ब्रह्मा, तथा ऋषियों की और दिव्य सर्पों की जाति को देखता हूँ । हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, मैं असंख्य भुजाएँ, उदर, नेत्र और मुख देखता हूँ, मैं सब ओर आपके अनंत रूप देखता हूँ, पर न तो मैं आपका अंत देखता हूँ और न ही मध्य और न आदि, मैं आपको मुकुट-माली, गदाचक्रधारी, तथा दुर्निरीक्ष्य देखता हूँ क्योंकि आप मेरे चारों ओर दीप्ति-मान् तेज की राशि हैं, सब ओर व्याप्त प्रभा हैं, जाज्वलल्यमान सूर्य तथा दीप्त ३९४ अनल के समान द्युतिमान् अप्रमेय हैं । आप जानने योग्य परम अक्षर हैं, आप इस विश्व के परम आधार और निलय हैं, आप शाश्वत धर्मों के अविनाशी रक्षक हैं, आप जगत् के सनातन आत्मा, सनातन पुरुष''१
पर इस दर्शन की महानता में संहारकर्त्ता का भीषण रूप भी सम्मिलित है । ये आदि, मध्य या अंत से रहित अप्रमेय हैं जिनसे सब वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, जिनके अन्दर वे स्थित रहती हैं तथा अन्त में लीन हो जाती हैं । ये परमेश्वर अपनी अनन्त बाहुओं से लोकों का आलिंगन किये हुए हैं और अपने लाखों हाथों से संहार करते हैं, शशि और सूर्य इनके नेत्र है इनका मुख दीप्त अनल के समान है और ये सदैव अपने तेज से सम्पूर्ण विश्व को तपा रहे हैं । इनका रूप उग्र तथा अद्भुत है, ये अकेले ही सभी दिशाओं तथा द्यावापृथिवी के सम्पूर्ण अंतराल में व्याप्त हैं । देवसंघ भयभीत होकर स्तुति-गान करते हुए इनके विश्वरूप के अन्दर प्रविष्ट हो रहे हैं; ऋषि और सिद्ध ''सुख और शांति हो'' ऐसा कहते हुए पुष्कल स्तुतियों से इनकी स्तुति कर रहे हैं; देव, गंधर्व, यक्ष, असुर विस्मित होकर निर्निमेष नेत्रों से इन्हें देख रहे हैं; इनके नेत्र दीप्त और विशाल हैं; इनके मुख निगल जाने के लिए खुले हुए हैं तथा अनेक संहारकारी दंष्ट्राओं के कारण विकराल हैं; इनके मुखों की आकृति मृत्यु और काल की अग्नियों के समान है । जगत्-संग्राम के दोनों पक्षों के राजा, वीर तथा सेनानायक इनके दंष्ट्राकराल भयानक मुखों में तीव्र वेग से प्रविष्ट हो रहे हैं और कई तो चूर्णित तथा रक्तरंजित सिरोवाले इनके शक्तिरूपी दाँतों के बीच फँसे हुए दिखाई दे रहे हैं । राष्ट्र-के-राष्ट्र, अदम्य वेग के साथ, इनके ज्यालामय मुखों के अन्दर उसी प्रकार संहार की ओर भागे चले जा रहे हैं, जैसे अनेकानेक नदियों की वेगवती धाराएँ समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं या जैसे पतंग प्रदीप्त अग्नि-शिखा पर टूट-टूटकर पड़ते हैं । उन प्रज्वलित मुखों से वह उग्ररूप दशों दिशाओं को ग्रसे जा रहा है; सम्पूर्ण जगत् उनकी संदीप्त तेजराशि से परिपूर्ण है तथा उनकी उग्र प्रभाओं में प्रतप्त हो रहा है । जगत् और उसके राष्ट्र संहार के भय से कंपित तथा व्यथित हो रहे हैं और अपने चारों ओर फैले हुए दुःख-कष्ट और महाभय के बीच अर्जुन भी दु:खित और भय-भीत हो रहा है; उसकी अंतरात्मा दु :खित और व्यथित हो रही है और वह शांति था प्रसन्नता नहीं अनुभव कर रहा है । वह उन रौद्र परमेश्वर से कहता है, ''कृपा करके बताइये कि आप कौन हैं, आप जो कि इस उग्र रूप को धारण करते हैं । हे देववर, आपको प्रणाम हो, आप प्रसन्न होइये । मैं जानना चाहता हूँ कि ______________ १. अ. ११ श्लोक १५. १६. १७. १८ ३९५ आप, जो कि आदि काल से चले आ रहे हैं, वे आप कौन है, क्योंकि मैं आपकी कार्य-प्रवृत्ति के संकल्प को नहीं जानता ''१
अर्जुन की यह अंतिम पुकार इस बात को सूचित करती है कि इस विश्वरूप-दर्शन का दोहरा उद्देश्य है । यह उन परात्पर तथा विराट् पुरुष का रूप है जो सनातन पुराण पुरुष हैं, 'सनातनं पुरुषं पुराणम्' , ये वे हैं जो सदा ही सृष्टि करते हैं क्योंकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा इनके शरीर के अन्दर देखे हुए देवों में से एक हैं, साथ ही ये वे हैं जो सदा ही इस लोक के अस्तित्व को बनाये रखते हैं, क्योंकि वे शाश्वत धर्मों के रक्षक हैं, पर ये वे भी हैं जो सदैव संहार कर रहे हैं जिससे कि वे नई सृष्टि कर सकें, जो काल तथा मृत्यु हैं, सौम्य तथा रौद्र नृत्य करनेवाले रुद्र हैं संग्राम में नग्न नृत्य करती हुई रौंदती चली जानेवाली और निहत असुरों के रक्त से सनी हुई मुण्डमालाधारिणी काली हैं, आधी-ववंडर, आग, भूचाल, व्यथा, दुर्भिक्ष, विप्लव, विनाश तथा प्रलयंकर समुद्र हैं । अपने इस अंतिम रूप को ही वे उस समय सामने लाते हैं । यह वह रूप है जिससे मनुष्य का मन जान-बूझकर परे भागता है और जिससे वह शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर छुपा लेता है ताकि शायद स्वयं न देखने पर वह उस 'रौद्र' की भी नजर में न आये । दुर्बल मानव हृदय केवल सुन्दर तथा सुखद सत्यों को ही चाहता है अथवा उनके अभाव में मनोहर गाथाओं को ही पसंद करता है; वह सत्य को उसकी समग्रता में नहीं प्राप्त करना चाहता, क्योंकि सत्य में ऐसा बहुत कुछ है जो स्पष्ट, मनोहर तथा सुखद नहीं है, इतना ही नहीं, बल्कि जिसे समझना कठिन है तथा सहन करना और भी कठिन । कच्चा धर्मवादी, उथला आशावादी विचारक, भावुक आदर्श-वादी, अपने भावों तथा संवेदनों का दास मनुष्य विश्व-सत्ता के कठोरतर परिणामों तथा कर्कशतर और उग्रतर रूपों को ऐंचतान कर उनसे बचने में एकमत हैं । छिपने-बचने के इस सर्वसाधारण खेल में भाग न लेने के कारण भारतीय धर्म की अज्ञानपूर्वक निन्दा की गयी है, क्योंकि, इसके विपरीत, उसने परमेश्वर के रौद्र भयानक तथा मधुर और सुन्दर प्रतीकों को साथ-साथ निर्मित किया और अपने सामने रखा है । क्योंकि यह उसके सुदीर्घ चिंतन तथा आध्यात्मिक अनुभव की गंभीरता तथा विशालता ही है जो उसे इन निस्सार जुगुप्साओं को अनुभव करने या इनका समर्थन करने से रोकती है |
भारतीय आध्यात्मिकता को मालुम है कि ईश्वर प्रेम, शान्ति तथा अचल नित्यता हैं ,--गीता, जो इन उग्र रूपों को हमारे सामने रखती है, उन परमेश्वर की बात कहती है जो सर्वभूतों के सखा और प्रेमी के रूप में इनके अन्दर अपनेको __________ १. अ. ११ श्लोक ३१ ३९६ मूर्तिमंत करते हैं । परन्तु उनके द्वारा किये जानेवाले जगत् के दिव्य शासन का एक अधिक कठोर रूप भी है, जो आरम्भ से ही हमारे सम्मूख उपस्थित होता है, वह है संहार का रूप । उसकी उपेक्षा करना भागवत प्रेम, शान्ति, स्थिरता और नित्यता के पूर्ण सत्य से वंचित होना है और यहाँतक कि इसे आंशिकता तथा भ्रम का रूप देना है, क्योंकि जिस सुखप्रद ऐकांतिक रूप में इसे उपस्थित किया जाता है, वह जिस जगत् में हम रहते हैं उसकी प्रकृति के द्वारा प्रमाणित नहीं होता । हमारा यह संघर्षात्मक तथा प्रयासमय जगत् उग्र, भयावह विनाशकारी तथा भक्षक जगत् है जिसमें जीवन का अस्तित्व संशयग्रस्त है, तथा मनुष्य की आत्मा और देह भारी संकटों के बीच विचरण करते हैं, यह एक ऐसा जगत् है जिसमें आगे उठाये जानेवाले प्रत्येक कदम के द्वारा, हम चाहें या न चाहें, कोई चीज पद-दलित या छिन्न-भिन्न हो जाती है, जिसमें जीवन का प्रत्येक श्वास मृत्यु का भी प्रश्वास है । जो कुछ भी हमें अशुभ या भीषण प्रतीत होता है उस सब की जिम्मे-वारी एक अर्द्ध-सर्वशक्तिमान शैतान के कंधों पर डाल देना या उसे प्रकृति का अंग कहकर एक ओर रख देना और इस प्रकार जगत्-प्रकृति तथा ईश्वर-प्रकृति में अलंध्य विरोध खड़ा कर देना, मानों प्रकृति ईश्वर से स्वतंत्र हो, अथवा उस सबकी जिम्मेवारी मनुष्य तथा उसके पापों पर लाद देना मानों इस जगत् की रचना में उसकी आवाज का बड़ा भारी महत्व हो या वह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई एक भी चीज रच सकता हो,--ये सब ऐसी युक्तियाँ हैं जो भद्दे ढंग से सांत्वना देनेवाली हैं तथा भारत की धार्मिक विचारधारा ने जिनकी शरण कभी नहीं ली । हमें सत्य पर, आमने-सामने, साहस के साथ दृष्टिपात करना होगा और देखना होगा कि परमेश्वर ने ही, और किसी ने नहीं, अपनी सत्ता के अन्दर इस जगत् का निर्माण किया है और उन्होंने इसे इस प्रकार का ही बनाया है । हमें देखना होगा कि अपनी संतानों को निगलनेवाली प्रकृति, प्राणियों के जीवनों को हड़प जानेवाला काल, अटल तथा सार्वभौम मृत्यु, तथा मनुष्य और प्रकृति में निहित हिंसक रुद्र शक्तियों भी, अपने एक अन्यतम वैश्व रूप में, वह परमोच्च ईश्वर ही हैं । हमें देखना होगा कि वे उदार तथा मुक्तहस्त स्रष्टा तथा सर्वसहायक, शक्तिमान् और दयालु जगत्पालक ईश्वर ही भक्षक तथा संहारक ईश्वर भी हैं । दु:ख-ताप और अशिव की शय्या पर शिकंजों से कसे हुए हम जो यंत्रणा भोग रहे हैं वह भी उतना ही उनका स्पर्श है जितना कि सुख-आनन्द और माधुर्य । जब हम पूर्ण एकत्व की आँख से देखते तथा अपनी सत्ता की गहराइयों में इस सत्य को अनुभव करते हैं केवल तभी हम उस छद्मरूप के पीछे भी आनंदमय परमेश्वर की शांत और सुन्दर मुखछवि पूर्ण रूप से निहार ३९७ सकते हैं और हमारी त्रुटियों की परीक्षा करनेवाले इस स्पर्श में भी मनुष्य की आत्मा के सखा और निर्माता का स्पर्श पूर्णतया अनुभव कर सकते हैं । लोक और जगत में जो असामंजस्य हैं वे ईश्वर के ही असामंजस्य हैं और उन्हें स्वीकार करके तथा उनमें से होकर आगे बढ़ते हुए ही हम उनके परम सामंजस्य की महत्तर सुर-संगतियों तक तथा उनके विश्वातीत और विश्वगत आनंद की ऊँचाइयों और हर्ष-स्पंदित विशालताओं तक पहुँच सकते हैं ।
गीता ने जो समस्या उठायी है तथा जो समाधान दिया है वे विश्व-पुरुष के दर्शन के इसी स्वरूप की माँग करते हैं । वह उस महान् युद्ध, विनाश और जन-संहार की समस्या है जिसे सर्व-परिचालक संकल्प ने जन्म दिया है और जिसमें सनातन अवतार स्वयमेव रणनायक के सारथी बनकर उतरे हैं । विश्वरूप के दर्शन करनेवाला ही स्वयं नायक है, वही मनुष्य की संघर्षशील आत्मा का प्रति-निधि है जिसे अपने विकास में बाधा पहुँचानेवाली क्रूर तथा अत्याचारी शक्तियों का विध्वंस करना है और इस प्रकार सत्ता के उच्चतर सद्धर्म तथा श्रेष्ठतर विधान के राज्य की प्रतिष्ठा और उपभोग करना है । उसके सामने एक ऐसा महासंकट है जिसमें भाई-भाई एक-दूसरेपर प्रहार करेंगे, जिसमें संपूर्ण राष्ट्र विध्वस्त हो जायेंगे और ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्दैववश स्वयं समाज भी संकट तथा अराज-कता के गर्त में जा गिरेगा । उस संकट के घोर रूप से किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वह पीछे हट आया है, अपने दैवनिर्दिष्ट कार्य से इन्कार कर दिया है, और अपने दिव्य सखा तथा गुरु से प्रश्न किया है कि क्यों वे उसे ऐसे घोर कर्म में नियुक्त कर रहे हैं, 'कि कर्मणि धोरे मां नियोजयसि ।'१ तब उसे यह बताया गया है कि जो कोई भी कर्म वह करे उसके दृश्यमान स्वरूप से उसे व्यक्तिगत रूप में कैसे ऊपर उठना होगा, तथा कैसे यह देखना होगा कि कर्त्नी शक्ति प्रकृति ही कार्य की करने-वाली है, उसकी अपनी प्राकृतिक सत्ता एक यंत्र है और ईश्वर प्रकृति तथा कर्मों के स्वामी हैं जिनके प्रति उसे अपने कर्मों को बिना किसी कामना या स्वार्थपरता के यज्ञ-रूप में अर्पित करना होगा । उसे यह भी बताया जा चुका है कि भगवान् इन सब चीजों से ऊपर तथा अलिप्त होते हुए भी मनुष्य और प्रकृति तथा उनके कार्यों के अन्दर अपने-आपको व्यक्त करते हैं और यह सब कुछ इस दिव्य अभि-व्यक्ति के लय-ताल के अन्दर ही एक गति है । परन्तु अब, जब कि उसे इस सत्य के मूर्त्तिमंत रूप का साक्षात्कार कराया जाता है, उसके अन्दर वह त्रास तथा संहार के इस रूप को भागवत माहात्म्य की प्रतिमूर्ति के कारण परिवर्द्धित देखता है और भयभीत हो उठता है तथा उसे सह नहीं सकता । कारण, सर्वात्मा _____________ १. अ. ३. श्लोक १ ३९८ को अपने-आपको प्रकृति के अन्दर प्रकट करना ही क्यों चाहिए ? यह मर्त्य सत्ता जो कि एक सृष्टिकारी तथा सर्वग्रासी ज्वाला है--इसका अभिप्राय क्या है, इस विश्वव्यापी संघर्ष तथा इन सतत विपत्संकुल सृष्टिचक्रों का और प्राणियों के इस प्रयास, व्यथा, वेदना तथा विनाश का क्या अभिप्राय है ? वह पुरातन प्रश्न पूछता है तथा सनातन प्रार्थना को उच्छृसित करता है, ''कृपा करके मुझे बताइये कि आप कौन हैं जो इस उग्र रूप में हमारे सामने आते हैं । मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं-आप जो आदि काल से चले आ रहे हैं, क्योंकि मैं आपके कार्यों का मूल संकल्प नहीं जानता । प्रसन्न होइये ।''१
भगवान् उत्तर देते हैं कि 'संहार ही मेरे कार्यों का मूल संकल्प है जिसे लेकर मैं यहाँ कुरुक्षेत्र के इस मैदान में, धर्म को कार्यान्वित करने के इस क्षेत्र में, मानव कर्म के इस क्षेत्र में खडा हूँ,'--'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रें' इस वर्णनात्मक पदावलिका प्रती- कात्मक अनुवाद हम 'मानव के कर्मक्षेत्न में' ऐसा कर सकते हैं; यह एक विश्व-व्यापी संहार है जो कालपुरुष की प्रक्रिया में आ उपस्थित हुआ है । 'मेरा एक भविष्यदर्शी प्रयोजन है जो अमोघ रूप से चरितार्थ होता है और किसी मनुष्य का उसमें भाग लेना या न लेना उसे रोक नहीं सकता, बदल या पलट नहीं सकता; कोई भी कार्य मनुष्य के द्वारा इस भूतलपर किये जा सकने से पहले मेरे द्वारा अपने संकल्प की सनातन दृष्टि में संपन्न किया जाता है । काल के रूप में मुझे पुरानी रचनाओं को नष्ट करना तथा नये, महान् और श्रेष्ठ राज्य का निर्माण करना है । तुझे दिव्य शक्ति तथा प्रज्ञा के मानवीय यंत्न के रूप में इस युद्ध में, जिसे तू रोक नहीं सकता, सत्य के लिए लड़ना तथा इसके विरोधियों का वध करना और उन्हें जीतना है । तुझे, प्रकृति के अन्दर विद्यमान मानव आत्मा को भी, प्रकृति में मेरे दिये हुए फल का, सत्य और न्याय के साम्राज्य का उपभोग करना होगा । तेरे लिए इतना ही पर्याप्त होना चाहिए,--अपनी आत्मा में ईश्वर के साथ एक होना, उनका आदेश प्राप्त करना, उनकी इच्छा के अनुसार कार्य करना, शांत भाव से एक परम प्रयोजन को जगत् में पूर्ण हुए देखना ।' ''मैं लोकों का क्षय करनेवाला उत्थित और प्रवृद्ध काल हूँ जिसकी कार्यप्रवृत्ति यहाँ राष्ट्रों का संहार करना है । तेरे बिना भी ये सब योद्धा, जो विरोधी सेनाओं में खड़े हैं, जीवित नहीं रहेंगे । इसलिए उठ, यश लाभ कर, अपने शत्नुओं को जीतकर समृद्ध राज्य का उपभोग कर । मेरे द्वारा, और किसी के द्वारा नहीं, ये पहले से ही मारे जा चुके हैं, हे सव्यसाची! तू निमित्तमात्न बन । द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य वीर योद्धाओं का, जिनका मेरे द्वारा वध किया जा चुका है, वध __________ १. ११, ३१ ३९९ कर; दुःखी और व्यथित मत हो । युद्ध कर, तू युद्ध में शत्रुओं पर विजय लाभ करेगा ।''१ उस महान् तथा घोर कर्म के सम्बन्ध में प्रतिज्ञा और भविष्यवाणी कर दी गयी है, पर व्यक्ति के द्वारा आकांक्षित फल के रूप में नहीं,-- क्योंकि उसके प्रति कोई आसक्ति नहीं होनी चाहिए,--बल्कि भगवदिच्छा के परिणाम के रूप में, संपन्न किये जाने योग्य कार्य के यश और सफलता के रूप में, भगवान् के द्वारा अपनी विभूति के अन्दर अपने-आपको ही प्रदान किये जानेवाले यश के रूप में । इस प्रकार जगत्-संग्राम के नायक को कर्म के लिए अंतिम तथा अलंध्य आदेश दे दिया गया है ।
ये काल तथा विश्व-पुरुष के रूप में व्यक्त कालातीत ही हैं जिनसे कर्म का आदेश प्रादुर्भूत हुआ है । कारण, निश्चय ही जब भगवान् यह कहते हैं कि ''मैं भूतों का क्षय करनेवाला काल हूँ'', तब उनका अभिप्राय यह नहीं है कि वे केवल काल-पुरुष हैं या काल-पुरुष का सम्पूर्ण सारतत्व संहार ही है, वरन् यह कि उनके कार्यों की वर्तमान प्रवृत्ति यही है । संहार सदा ही सृष्टि के साथ कदम मिलाकर चलनेवाला या पर्याय से आनेवाला तत्त्व है और संहार करके तथा नये सिरे से रचना करके ही जीवन के स्वामी जगत् के प्रतिपालन का अपना सुदीर्घ कार्य सम्पन्न करते हैं । और फिर, संहार प्रगति की पहली शर्त है । आंतरिक दृष्टि से, जो आदमी अपनी निम्नतर स्व-रचनाओं को नहीं मिटाता वह महत्तर जीवन की ओर नहीं उठ सकता । बाहरी दृष्टि से भी, जो राष्ट्र, समाज या जाति अपने जीवन के अतीत रूपों को नष्ट और परिवर्तित करने से चिरकाल तक कतराती रहती है वह स्वयं ही नष्ट हो जाती है, गल-सड़कर ध्वस्त हो जाती है और उसके ध्वंसावशेष में से अन्य राष्ट्र, समाज और जातियाँ निर्मित होती हैं । पुराने महाकाय जीवों का संहार करके ही मनुष्य ने भूतल पर अपने लिए स्थान बनाया । असुरों के विनाश के द्वारा ही देवता संसार में दिव्य नियम के चक्र की अविच्छिन्नताके साथ रक्षा करते हैं । जो कोई भी युद्ध और संहार के इस नियम से छुटकारा पाने के लिए समय से पूर्व यत्न करता है वह विश्व-पुरुष के महत्तर संकल्प के विरुद्ध एक व्यर्थ की चेष्टा करता है । जो कोई अपने निम्नतर अंगों की दुर्बलता के कारण उससे पीठ फेरता है, जैसा कि अर्जुन ने आरम्भ में किया, वह सच्ची वीरता को नहीं बल्कि प्रकृति, कर्म तथा जीवन के कठोरतर सत्यों का सामना करने के लिए आध्यात्मिक साहस के अभाव को ही दिखला रहा है । अतएव हम देखते हैं कि अर्जुन की पराङमुखता की यह कहकर निंदा की गयी कि यह हृदय की क्षुद्र और मिथ्या 'कृपा' है, अकीर्तिकर, अनार्य तथा अस्वर्ग्य दुर्बलता है तथा ________________ १. ११. ३२-३४ ४०० आत्मा की क्लीवता है, 'क्लैव्यं क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यम् ।' युद्ध के नियम का अतिक्रमण तो मनुष्य अपनी अमरता के महत्तर नियम को उपलब्ध करके ही कर सकता है । इस संसार में ऐसे लोग हैं जो इसे वहाँ खोजते हैं जहाँ यह सदैव विद्यमान है और जहाँ इसे प्रथमत: प्राप्त करना होता है, अर्थात् शुद्ध आत्मा के उच्चतर स्तरों में, और अतएव वे इसे उपलब्ध करने के लिए मृत्यु के नियमद्वारा शासित जगत् से किनारा खींच लेते हैं । यह एक वैयक्तिक समाधान है जिससे मनुष्यजाति तथा संसार के लिए कोई अंतर नहीं पड़ता या सच पूछो तो केवल इतना ही अंतर पड़ता है कि वे उस अपरिमित आध्यात्मिक शक्ति से वंचित हो जाते हैं जो उन्हें उनके विकास की कष्टप्रद यात्रा में आगे बढ़ने के लिए सहायता पहुँचा सकती थी ।
तो फिर वह नरश्रेष्ठ, दिव्य कर्मी, अर्जुन जो वैश्व संकल्प की प्रणालि का उन्मुक्त वाहक है, क्या करे, जब वह विश्व-पुरुष को किसी बड़े भारी विप्लव की और मुड़े हुए, राष्ट्रों के विनाश के लिए उत्थित तथा प्रवृद्ध संहारक काल के रूप में अपनी आंखों के सामने मूर्तिमंत देखता है और जब वह अपने-आपको भौतिक शस्त्रास्त्रों के द्वारा युद्ध करने या मनुष्यों का नेतृत्व एवं मार्गदर्शन या प्रेरणा करनेवाले के रूप में अग्रपंक्ति में खड़े हुए पाता है, जैसा कि वह अपने स्वभाव की वास्तविक प्रवृत्ति एवं अपनी अंत:-स्थ शक्ति के कारण किये बिना नहीं रह सकता, 'स्वभावजेन स्वेन कर्मणा,' तब भला उसे क्या करना होगा ? क्या उसे युद्ध से विरत होना, चुपचाप बैठ जाना तथा तटस्थता के द्वारा विरोध करना होगा ? परन्तु विरति से कुछ नही बनेगा, संहार-कारी संकल्प की परिपूर्ति में कोई बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि इससे जो छिद्र पैदा होंगे उनके कारण विश्रुंखलता और भी बढ़ेगी । भगवान् कहते है कि तेरे बिना भी, 'ॠतेऽपि त्याम्,' संहार का मेरा संकल्प पूरा होकर रहेगा । यदि अर्जुन युद्ध का त्याग कर देता अथवा यदि कुरुक्षेत्र का युद्ध न भी लड़ा जाता, तो वह त्याग भावी अनिवार्य संकट, गोलमाल तथा विनाश को केवल टाल देता तथा उसे और भी बुरा बना देता । क्योंकि, ये चीजें कोई आकस्मिक घटना नहीं होतीं, बल्कि एक ऐसा अपरिहार्य बीज होती हैं जो बोया जा चुका है तथा एक ऐसी फसल है जिसे काटना ही होगा । जिन्होंने आँधी के बीज बोये हैं उन्हें बवंडर की फसल काटनी ही होगी । असल में उसकी अपनी प्रकृति भी युद्ध का कोई वास्तविक परित्याग नहीं करने देगी, 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।' अन्त में भगवान् गुरु अर्जुन से कहते हैं कि ''अपने अहंकार का आश्रय लेकर तू जो यूं सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या है : प्रकृति तुझे तेरे कार्य में नियुक्त करेगी । जो कार्य तू मोहवश नहीं करना चाहता वही तू अपने स्वभावजनित ४०१ कर्म से बंधा हुआ, विवश होकर करेगा ।''१ तो फिर क्या उसे युद्ध को कोई और ही मोड़ देना होगा, स्थूल शस्त्रास्त्रों की जगह किसी प्रकार के आत्म-बल, आध्यात्मिक पद्धति एवं शक्ति का प्रयोग करना होगा ? पर वह तो उसी कार्य का केवल एक अन्य रूप है; संहार तो तब भी होगा, और उसे दिया गया मोड़ भी वह नहीं होगा जिसे व्यक्तिगत अहंभाव चाहता है, बल्कि वह होगा जिसे विश्व-पुरुष चाहते हैं । यहाँतक कि, संहार की शक्ति इस नयी शक्ति के सहारे पुष्ट हो सकती है, अधिक भीषण वेग प्राप्त कर सकती है तथा काली प्रादुर्भूत होकर अपने अट्टहास्य के घोरतर निनाद से जगत् को भर दे सकती है । जबतक मनुष्य का हृदय शांति का अधिकारी नहीं बनता तबतक सच्ची शांति नहीं स्थापित हो सकती; जबतक रुद्र का ऋण नहीं चुकाया जाता, विष्णु का विधान प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकता । तब क्या उसे युद्ध से किनारा कसकर अबतक अविकसित मानवजाति को प्रेम तथा एकता के नियम का उपदेश देना होगा ? इस संसार में प्रेम और एकत्व के नियम के शिक्षकों का तो होना आवश्यक है, क्योंकि अंतिम उद्धार इस ढंग से ही होगा । परंतु जबतक मनुष्य के अंदर अवस्थित काल-पुरुष तैयार नहीं हो जाता तबतक आंतरिक एवं चरम सत्य बाह्य एवं तात्कालिक सत्य पर प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकता । ईसा और बुद्ध आये और चले गये, परंतु अबतक भी संसार रुद्र की ही हथेली में है । इस बीच अहंभावपूर्ण शक्ति से अत्यधिक लाभ उठानेवाली शक्तियों तथा उनके दासों के द्वारा व्यथित तथा उत्पीड़ित मानवजाति का आगे बढ़ने के लिए उग्रप्रयास संघर्ष के वीरनायक की तलवार तथा इसके पैगंबर की वाणी के लिए ही अलख जगा रहा है ।
अर्जुन के लिए नियत सर्वोच्च पथ यह है कि वह निरहंकार होकर, जिस कार्य को वह भगवान् के द्वारा आदिष्ट अनुभव करता है उसका मानवीय निमित्त तथा यंत्र बनकर, 'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्,'२ अपने तथा मनुष्य के अंदर अवस्थित ईश्वर का सतत अनुस्मरण करते हुए, 'मामनुस्मरन्,' तथा अपनी प्रकृति के प्रभु के द्वारा अपने लिए नियत किये हुए किन्हीं भी तरीकों से ईश्वर की इच्छा को कार्य-रूप में परिणत करे । उसे अपने अंदर वैयक्तिक द्वेष, क्रोध, घृणा और अहंमय कामना एवं लालसा को नहीं पोसना होगा, उग्र असुर की भाँति कलह के लिए उतावला नहीं होना होगा, न हिंसा और संहार के लिए तरसना ही होगा, बल्कि उसे अपना लोकसंग्रह का कार्य करना होगा, 'लोकसंग्रहाय ।' कर्म से परे उसे उसकी ओर दृष्टि रखनी होगी जिसकी ओर वह ले जाता है तथा जिसके लिए ____________ १. १८, ५६-६० २. ११-३३ ४०२ वह युद्ध कर रहा है । क्योंकि, काल-पुरुष जगदीश्वर संहार के लिये संहार नहीं करते, बल्कि विकास की चक्रात्मक प्रक्रिया में एक उत्कृष्टतर राज्य तथा वृद्धिशील अभिव्यक्ति, 'राज्यं समृद्धम्,' के हित रास्ता साफ करने के लिए ही करते है । उसे संघर्ष की महानता तथा विजय के गौरव को,--यदि आवश्यक हो तो, पराजय का छद्मरूप धारण करके आनेवाली विजय के गौरव को,--उस गभीरतर अर्थ में ग्रहण करना होगा जिसे स्थूल मन नहीं देख पाता, और फिर, अपने समृद्ध राज्य का उपभोग करते हुए, मनुष्य मात्र का भीनेतृत्व करना होगा । संहारकर्ता की आकृति से भयभीत न होकर उसे उसके अंदर उस सनातन आत्मा को देखना होगा जो इन सब नाशवान् शरीरों में अविनाशी है, और साथ ही उस आकृति के पीछे मनुष्य के सारथि एवं नेता, सर्वभूतसुहृत् 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' के मुखमंडल को देखना होगा । इस विकराल विश्व-रूप को जब वह एक बार देख लेता तथा अंगीकार कर लेता है तो शेष सारा अध्याय इसी आश्वासनदायी सत्य के निरूपण की ओर मोड़ दिया जाता है; अंत में यह सनातन की एक सुपरिचित मुखछवि तथा विग्रह को प्रकाशित करता है । ४०३ |